क्या देश के राजनेताओं ने जनजातीय समाज के सम्मान के साथ राजनीति करना आरंभ कर दिया है?
अपनी गरिमा और सम्मान की लड़ाई लड़ रहा आदिवासी समाज
भोपाल // विजया पाठक
जनजातीय आबादी के मान से भारत विश्व का प्रमुख देश है। यहां विभिन्न राज्यों में एक नहीं बल्कि विभिन्न जनजातीयों के लोग निवास करते हैं। खास बात यह है कि यह लोग आज भी अपने पारंपरिक संस्कृति को जीवंत रखने का प्रयास कर रहे हैं। इन जनजातीयों के इसी जज्बे को देखते हुए 09 अगस्त 1994 में अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस की स्थापना की गई। तब से लेकर लगातार 25 वर्षों से अधिक समय तक यह दिवस पूरे विश्व में गरिमामय ढंग से आयोजित किया जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय से यह देखने में आया है कि राजनैतिक द्वेष के कारण अब राजनीति ने जनजातीयों के सम्मान के लिये आयोजित किये जाने वाले इस दिन को भी अखाड़े का मैदान बना दिया है। जबकि देखा जाये तो जनजातीय समाज की अपनी नैसर्गिक विरासत है, जिसमें निश्छल जीवन का संघर्ष प्रतिबिंबित हैं। जनजातीय जीवन-शैली में आलोकित आनंद समूचे देश की ऊर्जा और उसका दैनंदिन संघर्ष का प्रतिबिंब है।
कब तक तारीख के पीछे सम्मान देने से चूकेंगे
जनजातीय समाज के सम्मान की बात जहां आती है तो हम सभी का कर्तव्य बनता है कि हम उस समाज की रक्षा के लिये चिंता करें और उसकी समृद्धि के लिये निरंतर कार्य करें। लेकिन आज देश में जनजातीय लोगों के नाम पर जबरदस्त राजनीति छिड़ी हुई है। आखिर कब तक हम 09 अगस्त और 15 नवंबर की तारीखों के बीच में जनजातीय समाज की प्रतिष्ठा और उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करेंगे। आखिर क्यों नहीं हम विश्व स्तर पर घोषित किये गये अंर्तराष्ट्रीय जनजातीय दिवस को स्वीकार कर 09 अगस्त को ही उनके सम्मान का दिवस मनाने का प्रयास करते हैं। यह गहन चिंता का विषय है कि जिसे आगामी समय में देश के नेताओं और प्रधानमंत्री को मंथन करना चाहिए।
15 नवंबर से आपत्ति नहीं लेकिन 09 अगस्त से क्यों?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनकी सरकार लगातार जनजातीय समाज के संरक्षण व संवर्धन की बात करते हैं। लगातार उनके विकास की कार्ययोजनाओं को तैयार करते हैं और उनका लाभ जनता तक पहुंचाने का काम भी कर रहे हैं। लेकिन फिर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को 09 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाने का परहेज क्यों है। कहीं इस परहेज की एक वजह यह तो नहीं कि तीन वर्ष पहले प्रधानमंत्री मोदी ने खुद 15 नवंबर को मध्यप्रदेश की धरती से भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की इसलिये वे खुद इस दिवस पर फोकस रहकर काम करते हैं। अगर ऐसा है तो यह चिंता का विषय है और इस तरह के गतिरोध को तत्काल प्रभाव से समाप्त करने की आवश्यकता है।
दुनिया के 70 देशों में आदिवासियों का प्रभाव
दुनिया में करीब 200 देश हैं, जिनमें से 70 देशों में आदिवासियों का प्रभाव दिखता है। दुनिया में 5000 आदिवासी समाज की 7000 भाषाएं हैं। दिसंबर 1994 में संयुक्त राष्ट्र ने यह निर्णय लिया था कि विश्व के आदिवासी लोगों का अंतरराष्ट्रीय दिवस हर साल 09 अगस्त के दिन मनाया जाएगा। यह दिन आदिवासियों की संस्कृति, सभ्यता, उपलब्धियों और समाज और पर्यावरण में उनके योगदान की तारीफ करने का दिन होता है।
भारत में आदिवासियों की स्थिति
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में फिलहाल अनुसूचित जनजातियों की आबादी 10.45 करोड़ हो चुकी है। ये कुल आबादी का 8.6 फीसदी है। भारत में करीब 705 जनजातीय समूह हैं। इनमें 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह हैं।
इन राज्यों में आदिवासियों की आबादी
भारत में आदिवासी मुख्य रूप से ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, अंडमान-निकोबार, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय, नागालैंड और असम में काफी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इनमें सबसे खास अंडमान द्वीप पर स्थित सेंटीनल में रहने वाली जारवा नामकी जनजाति है, जिन्हें दुनिया का सबसे पुराना जीवित आदिवासी समाज माना जाता है। अंडमान द्वीप पर स्थित सेंटीनल में जारवा जनजाति आज मुश्किल से 400 के करीब बचे हैं. ये सुअर, कछुआ और मछली खाकर जीवित रहते हैं। इनके साथ फल जड़ीवाली सब्जियां और शहद भी इनके खाने में शामिल हैं।
कई मौलिक सुविधाओं से वंचित
शहरों की चमक दमक से दूर प्रकृति के छांव में रहने वाले आदिवासी कई मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं। विकास की दौड़ में वो पीछे ना रह जाएं, इसके लिए संविधान के निर्माण के वक्त ही इनके लिए सरकारी नौकरियों में 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई। अभी उसमें भी क्रीमी लेयर लाने की बात सुप्रीम कोर्ट ने कही, तो विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर उनका ये सवाल सतह पर आ चुका है।
10 करोड़ से अधिक हैं आदिवासी
भारत में करीब साढ़े 10 करोड़ आदिवासी हैं। इनकी सादगी, इनका विश्वास, इनके मूल्य…ये सब मिलकर भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सामने एक ऐसा समाज बनाते हैं जिनकी आस्था में प्रकृति बसती है। अगर दुनिया का फेफड़ा जिंदा है, अगर लोगों को सांस लेने के लिए थोड़ी बहुत साफ हवा मिल जाती है, तो इन लोगों की बदौलत है। इन लोगों के लिए प्रकृति से प्रेम ही ईश्वर के प्रति प्रेम है। अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर जब भारत समूची दुनिया के आदिवासियों के संकल्प और संताप में एक साथ शामिल होता है, तो उसके सामने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू एक नया मिसाल पेश करती है।
कौन होते हैं आदिवासी?
आदिवासी उन्हें कहते हैं, जो प्रकृति की पूजा करने और उसकी रक्षा करने वाले हैं। जिन्हें जंगल, पेड़, पौधों और पशुओं से बेहद प्यार है। उनकी जीवन शैली सादा है, स्वभाव शालीन और शर्मीला होता है। ये पारंपरिक भोजन करते हैं। अपने त्योहारों को वैभव से नहीं, बल्कि विश्वास से उल्लास में बदलते हैं। आदिवासी शिकार में माहिर होते हैं। धनुष-बाण उनके हथियार होते हैं। वो अपने पूर्वजों की बनाई परंपरा का सच्चे दिल से पालन करते हैं। उन्हें अपनी पंरपरा से निकली कला और गीत-संगीत से बेहद लगाव होता है। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति और मिट्टी से स्वाभाविक अनुराग होता है। वो जड़ी-बूटियों और औषधियों का बहुत बारीक ज्ञान रखते हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने की थी 09 अगस्त को अवकाश की मांग
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को मध्यप्रदेश में 09 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस पर अवकाश की मांग को लेकर पत्र लिखा था। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि ‘संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर सम्पूर्ण विश्व दिनांक 09 अगस्त को “विश्व आदिवासी दिवस” के रूप में मनाता है। लेकिन मध्यप्रदेश सरकार द्वारा “विश्व आदिवासी दिवस” के अवकाश को समाप्त कर दिया गया, जिससे आदिवासी समाज में रोष व्याप्त है। उन्होंने लिखा, ‘मध्यप्रदेश सरकार ने वर्ष 2019 में “विश्व आदिवासी दिवस” को भव्यता एवं समारोहपूर्वक मनाया था तथा इस दिवस पर प्रदेश में मेरे द्वारा सार्वजनिक अवकाश भी घोषित किया गया था ताकि सभी वर्गों के लोग आदिवासी दिवस के आयोजनों में सम्मिलित हो सकें और इस दिवस को मनाने के उद्देश्य को पूर्ण करने में सहभागी बनें।